चन्दा – एक कहानी
चन्दा – एक कहानी
सुबह के 4 बजे होंगे.......? सुबह का अंधेरा रात के जैसा पूरा काला नहीं था। अंधेरे में कहीं कहीं प्रकाश था। उसमें चांद की रोशनी और चंदा के पडोसी छेत्रपाल की झुग्गी से बाहर आ रहे साठ वॉल्ट के बल्ब की रोशनी भी मिली हुई थी। चांद आधा आसमान में और आधा नाले के पानी में नज़र आ रहा था। पूरा चांद आधा मालूम पड़ता था। क्या मालूम आज भी आधा निकलने का मन रहा होगा। या फिर आधा निकलना भूल गया हो। सुबह का अंधेरा होते होते आधा थककर सो गया होगा।
चंदा की आंख आज भी कल वाले बखत पर खुली। वो उठी, अंधेरे में ही चलने लगी। गिरी नहींं। पहली बार गिरी थी, अब आदत बन गयी। हाथों से दीवार पर टटोला। खट की आवाज हुई। बल्ब की धुंधली सी, डीम पीली रोशनी टूटे दरवाजों के बीच से बाहर के अंधेरे में मिल गई। सालों से ना पुति दीवारें, झुग्गी में रोशनी के फैलते ही गन्दी दिखने लगी। उसने एक ऩजर सोते हुए लोगों को देखा। रीना और सीमा गुड़ी मुडी हो फर्श पर बेसूद पडी थीं, बड़ी लड़की रानी बगल में दीवार के साथ औंधे मुंह सटी हुई थी। रमेश, चन्दा का आदमी उधड़ी हुई चारपाई पर अंडरवियर पहने खर्राटें ले रह़ा था। चन्दा उसी चारपाई से उठकर आई थी। मुंह फाड़कर लम्बी सी जम्हाई ली और बाहर चली आई। किवाड़ खुलने से चरचराने की आवाज हुई। बाहर की हवा ठंडी थी। हवा चन्दा से टकराई तो हवा को अच्छा लगा।
अंधेरे में प्रकाश मिल रहा था। अंधेरे का रंग कई जगहों से उड़ चुका था। टट्टी का डिब्बा, किवाड़ के पास था। उसने डिब्बे को उठा लिया। नल के साथ गली थी। वहां से पानी भरा और सड़क के किनारे चल दी। जेनू का कुत्ता रात भर चांद पर भौकंता रहा था। चंदा के पीछे हो लिया, चन्दा की आदत की तरह ये कुत्ते की आदत थी। बस्ती से थोड़ा दूर फूटपाथ पर, दीवार की ओट में बैठ गईंं। कुत्ता जमीन को सुंघ रहा था। थोड़ी–थोड़ी दूर पर कुछ और औरतें भी बैठी थीं।
सड़क पर छ–आठ लोग डब्बा ले जा–आ रहे थे। बस्ती के बाहर बिछी चारपाईयों पर आदमी लोग सो रहे थे। जब चन्दा वापस लौटी तो गली के बाहर छेत्रपाल बीड़ी पी रहा था। चन्दा ने बाहर ही हाथ, पैर, मुंह धोया। मुंह धोने से उसका रंग साफ नहीं हुआ था। फिर अंदर आई।
रात की बुझी हुई अंगेठी को दोबारा जलाया। धंुआ पूरी गली में फैलने लगा। आग को उसने फुंका तो धुआं उसके गले में चला गया। जोर से खांसते हुए खड़ी हो गई। गली के लोग भी उठ गए थे। खासते हुए बाल्टी उठाई। पानी भरने चली गई। दो–तीन औरतें उससे पहले नल पर खड़ी बतिया रही थीं। बाल्टी नल पर छोड़कर वापस चली आई। अंगेठी लाल हो गई थी। अंदर ले आई। अंगेठी पर चाय का पानी रख और उसकी आग से अपने लिए बीड़ी सुलगाई।
‘‘ए चन्दा, तेरी बाल्टी भर गई री’’ बाहर से आवाज आयी।
बाल्टी लाकर किवाड़ के पास रख दी। चाय उबल रही थी। चाय उतारी। रमेश और अपने लिए चाय निकली। रात की बची–खुची बासी सब्जी को गरम किया। अंधेरा जा रहा था दिन आ रहा था।
6 बज गए थे। गली और सड़क से कुछ जानी–कुछ अनजानी आवाजें आ रहीं थीं। डब्बा लिए भागते लोग आराम से लौट रहे थे। साईकिल की घंटियों की ट्रिन ट्रिन दूर तक सुनाई दे रही थीं, पास की मस्जि़द से अज़ान भी सुनाई देने लगी, पास की चाय की दुकान से गाने की धुन भी गुंज रही थी। जेनू का कुत्ता न जाने क्यों अचानक भौंकने लगा। पागल नहीं था फिर भी भौंके जा रहा था। चन्दा ने आवाज लगाई तो रानी उठी। बाहर रखी बाल्टी के पानी से मुंह धोने लगी। रीना की आंख खुली फिर सीमा भी उठ गई। दोनों कुछ देर तक चारपाई पर पैर लटाए बैठी रहीं। बाल उलझे हुए थे। रीना के गाल पर थूक (लार) के सफेद निशान थे। चंदा जोर से चिल्लाई – ‘‘सकूल नहीं जाना कमीनियांें।’’ रीना मुंह धोन चली गई, सीमा ने फटी–गंदी सी वर्दी पहन ली। रीना आई तो सीमा चली गई। चंदा ने रमेश को उठाया– ‘उठ बागड़ी, सुबह हो गई है।’ उसने करवट बदल ली। चंदा ने गाली दी– ‘‘हरामी उठ जा, चाय रखी है पी लियो’’ चली गई। रमेश वैसे ही सोता रहा। चंदा ने फिर गालियां दी। रमेश ने अब आंखें खोल ली। उठ कर चारपाई पर ही बैठ रहा। सिरहाने रखी चाय पी। किवाड़ पर टंगा पैज़ामा पहना। डब्बा उठा चल दिया।
करीब 7 बजे होंगे। पास किसी दुकान से फिल्मी गीतों की आवाज आ रही थी। बाहर नल पर पानी भरने वाली औरतों का जमघट लग चुका था। बाल्टियों की आवाज.... , पहले पानी भरने के लिए सभी लड़ रही थी। बस्ती की कोने वाली चाय की दुकान पर कुछ लोग बीडि़यों के धूएं में गपशप कर रहे थे। रमेश भी बीड़ी पीने के लिए यहीं खड़ा हो गया। चंदा बाहर आई, प्रवीन से पूछा ‘‘टैम कितना हुआ है।’’ 7 बज चुके हैं। 7: 30 का स्कूल था। फटा बस्ता लिए दोनो बच्चियां स्कूल की ओर चल दी। जैसे उनकी मजबूरी हो। रानी ने तो छठी में ही स्कूल जाना छोड़ दिया था। अब उसकी शादी की बात चल रही है... चंदा, होगी कोई ..... तीस एक साल की... रंग सांवला। शरीर और चेहरा पतला। चेहरे पर चेचक जैसे कुछ दाग। बाल हमेशा उलझे हुए.. बिल्कुल उसकी जिन्दगी की तरह। एक छोटी चोटी पीठ पर झुलती रहती है। तीखी आवाज। छोटी छोटी बात पर किसी से भी लड़ने लगती है। आस पड़ोस के लोग उसके मुंह नहीं लगना चाहते – वे गालियां खूब बकती है। कौन सी बात उसे बुरी लग जाए...... कब किस बात पर लड़ने लगे कुछ मालूम नही। और किसी की लड़ाई हो तो बीचबचाव के लिए सबसे पहले पहुंच जाती है। गली के बाहर चारपाई पर बैठ अकेले बीड़ी पीती है, कभी कभी शराब भी। जब कभी शराब पीती है तो रमेश को गालियां देती है कई बार तो उसने उसे पीटा भी। लेकिन रमेश ने कभी नहीं मारा। वह अक्सर चुप ही रहता है।
गली मे दीवार के साथ खड़ी साईकिल रोज़ सुबह उसका इंतजार करती रहती है। वह साइकिल उठाती और रईसों की कॉलोनी की ओर निकल जाती है। पिछले 9 सालों से वे यहां रोज आ रहीं है। घरों में बर्तन–भांडा, झाडु–पोछा और कपड़े लत्ते धो कर कुछ रूपया कमाने। कहीं से कुछ खाने को मिल जाता है और कभीे कभी पुराने कपड़े। जब शादी हई तो 17 साल ही की थी। चार साल में 3 लड़कियां पैदा हो गईं। रमेश शराब पी कर घर पर ही पड़ा रहता। शादी के बाद कोई सुख नहीं मिला, जिम्मेदारियां और बढ़ गयी। गरीबी तो बाप के घर में भी थी पर जिम्मेदारी नहीं थी। बीना ने उसे यहां काम दिलाया था। शुरू में 75 रूपये एक घर से मिले अब उसे 200 रूपये मिलतें हैं। पैसों और काम को लेकर कई कई बार उसे मालकिन से लड़ना पड़ा है। काम छुटता रहा है, नया लगता रहा है।
अपनी बस्ती से कॉलोनी में पहुंचने में उस 25 मिनट लगते हैं। 2 साल तक पैदल ही आती जाती रही। फिर एक साईकिल का इंतजाम कर लिया। साईकिल उसने खरीदी नहीं थी। एक दिन शाम को लौटते हुए किसी औरत को साईकिल चलाते हुए देख लिया था। तभी से साईकिल खरीदने की ललक पैदा हो गई थी। उस रात सोई नहीं थी। अगले दिन काम पर भी नहीं गई। मार्किट से नयी साईकिल की कीमत मालूम की, औकात से बाहर थी। पूरे इलाके में घूमती रही, कोई पुरानी साईकिल बेच रहा हो। उसके पास उतने रूपये नहीं थे की पुरानी ही खरीद सके। कुछ दिन गुजरे। साईकिल का ख्याल दिमाग से ना निकल पाया। इस उम्मीद से की कभी साईकिल ले पाएगी, पास के प्रवीन से चलाना सीख लिया। कई बार गिरी। चोटें लगी। दूसरों को भी लगीं। कुछ दिन में सीख तो गई। रूपयों की दिक्कत तो आज भी वैसे ही थी। काम पर जाते हुए उसे साईकिल याद आती, लौटते हुए भी।
एक शाम लौटते हुए सड़क के किनारे पेड़ के सहारे साईकिल खड़ी थी। चन्दा ने देखा आसपास कोई नहीं था। खड़ी रही। साईकिल उठाई। चलती बनी। उसका मानना है कि मैंने चोरी नहीं की वो तो सड़क पर पड़ी मिल गई थी। अब ये उसकी अपनी साईकिल है। मजाल किसी की कोई उसकी मर्जी के बगैर छू तो ले। साईकिल की फिटनस का ख्याल है उसे।
अब शाम होने से पहले लौट आती है। वह लौटी तो रानी ने चाय दी। पी। चारपाई लेकर बाहर सड़क के किनारे बैठ गई। बीड़ी सुलगाई। वहीं से चिल्लाने लगी ‘ अरी रंडियों कभी तो नल खाली छोड़ दिया करो।’ उठी। सब्जी वाले के पास खड़ी हो गई। बीड़ी मुंह में दबायी। आलू छाटे। थोड़ा हरा धनियां भी ले लिया। कहा– पैसे कल ले लियो।’ रहमत अली उसकी आदत से वाकिफ है, जानता है कल का मतलब। अभी पैसे मांगेगा तो गालियां सुननी पडे़गी। हरामी, भागी जा रही हूं रंडूए के पैसे लेके। सब्जी सीमा को रख आने के लिए दी। चल दी। बस्ती में घूमती है, सबसे हालचाल पूछती है, बैठती है, घर में घूस जाती है। जैसे मसीहा हो सबकी, मगर लड़ते हुए हाथापायी पर उतरु हो जाती है। एक बार तो उसने घर के आगे बिखरे कुड़े को लेकर गली के ही मोटे को पीट दिया था। मोटे ने भी घुमाके जोरदार दो झापड़ जड़ दिए। पुलिस वुलिस भी आयी। मोटे को पकड़ ले गयी। जब षाम तक चंदा का गुस्सा ठंडा हुआ तो खुद ही मोटे को छुड़ाने चली गयी.... वो ऐसी ही हैं
कई साल गुजर चुके हैं... अब मैं उस जगह पर नहीं जाता... मगर सुना है कि चंदा बूढी हो गयी है... चंदा पहले से ज्यादा दुबली दिखने लगी है... कम उम्र में उम्र दराज लगती है... दो बेटियों की षादी हो गयी है और तीसरे के लिए लड़का देख रही है... काम पर अब भी जाती है...रविवार के दिन कभी धूप में कभी छांव में उधड़ी हुई चारपाई लिए बैठी रहती है और अकेले ही कुछ कुछ बुदबुदाती है जैसे अपने आपको दिलासा दे रही हो....
सुबह के 4 बजे होंगे.......? सुबह का अंधेरा रात के जैसा पूरा काला नहीं था। अंधेरे में कहीं कहीं प्रकाश था। उसमें चांद की रोशनी और चंदा के पडोसी छेत्रपाल की झुग्गी से बाहर आ रहे साठ वॉल्ट के बल्ब की रोशनी भी मिली हुई थी। चांद आधा आसमान में और आधा नाले के पानी में नज़र आ रहा था। पूरा चांद आधा मालूम पड़ता था। क्या मालूम आज भी आधा निकलने का मन रहा होगा। या फिर आधा निकलना भूल गया हो। सुबह का अंधेरा होते होते आधा थककर सो गया होगा।
चंदा की आंख आज भी कल वाले बखत पर खुली। वो उठी, अंधेरे में ही चलने लगी। गिरी नहींं। पहली बार गिरी थी, अब आदत बन गयी। हाथों से दीवार पर टटोला। खट की आवाज हुई। बल्ब की धुंधली सी, डीम पीली रोशनी टूटे दरवाजों के बीच से बाहर के अंधेरे में मिल गई। सालों से ना पुति दीवारें, झुग्गी में रोशनी के फैलते ही गन्दी दिखने लगी। उसने एक ऩजर सोते हुए लोगों को देखा। रीना और सीमा गुड़ी मुडी हो फर्श पर बेसूद पडी थीं, बड़ी लड़की रानी बगल में दीवार के साथ औंधे मुंह सटी हुई थी। रमेश, चन्दा का आदमी उधड़ी हुई चारपाई पर अंडरवियर पहने खर्राटें ले रह़ा था। चन्दा उसी चारपाई से उठकर आई थी। मुंह फाड़कर लम्बी सी जम्हाई ली और बाहर चली आई। किवाड़ खुलने से चरचराने की आवाज हुई। बाहर की हवा ठंडी थी। हवा चन्दा से टकराई तो हवा को अच्छा लगा।
अंधेरे में प्रकाश मिल रहा था। अंधेरे का रंग कई जगहों से उड़ चुका था। टट्टी का डिब्बा, किवाड़ के पास था। उसने डिब्बे को उठा लिया। नल के साथ गली थी। वहां से पानी भरा और सड़क के किनारे चल दी। जेनू का कुत्ता रात भर चांद पर भौकंता रहा था। चंदा के पीछे हो लिया, चन्दा की आदत की तरह ये कुत्ते की आदत थी। बस्ती से थोड़ा दूर फूटपाथ पर, दीवार की ओट में बैठ गईंं। कुत्ता जमीन को सुंघ रहा था। थोड़ी–थोड़ी दूर पर कुछ और औरतें भी बैठी थीं।
सड़क पर छ–आठ लोग डब्बा ले जा–आ रहे थे। बस्ती के बाहर बिछी चारपाईयों पर आदमी लोग सो रहे थे। जब चन्दा वापस लौटी तो गली के बाहर छेत्रपाल बीड़ी पी रहा था। चन्दा ने बाहर ही हाथ, पैर, मुंह धोया। मुंह धोने से उसका रंग साफ नहीं हुआ था। फिर अंदर आई।
रात की बुझी हुई अंगेठी को दोबारा जलाया। धंुआ पूरी गली में फैलने लगा। आग को उसने फुंका तो धुआं उसके गले में चला गया। जोर से खांसते हुए खड़ी हो गई। गली के लोग भी उठ गए थे। खासते हुए बाल्टी उठाई। पानी भरने चली गई। दो–तीन औरतें उससे पहले नल पर खड़ी बतिया रही थीं। बाल्टी नल पर छोड़कर वापस चली आई। अंगेठी लाल हो गई थी। अंदर ले आई। अंगेठी पर चाय का पानी रख और उसकी आग से अपने लिए बीड़ी सुलगाई।
‘‘ए चन्दा, तेरी बाल्टी भर गई री’’ बाहर से आवाज आयी।
बाल्टी लाकर किवाड़ के पास रख दी। चाय उबल रही थी। चाय उतारी। रमेश और अपने लिए चाय निकली। रात की बची–खुची बासी सब्जी को गरम किया। अंधेरा जा रहा था दिन आ रहा था।
6 बज गए थे। गली और सड़क से कुछ जानी–कुछ अनजानी आवाजें आ रहीं थीं। डब्बा लिए भागते लोग आराम से लौट रहे थे। साईकिल की घंटियों की ट्रिन ट्रिन दूर तक सुनाई दे रही थीं, पास की मस्जि़द से अज़ान भी सुनाई देने लगी, पास की चाय की दुकान से गाने की धुन भी गुंज रही थी। जेनू का कुत्ता न जाने क्यों अचानक भौंकने लगा। पागल नहीं था फिर भी भौंके जा रहा था। चन्दा ने आवाज लगाई तो रानी उठी। बाहर रखी बाल्टी के पानी से मुंह धोने लगी। रीना की आंख खुली फिर सीमा भी उठ गई। दोनों कुछ देर तक चारपाई पर पैर लटाए बैठी रहीं। बाल उलझे हुए थे। रीना के गाल पर थूक (लार) के सफेद निशान थे। चंदा जोर से चिल्लाई – ‘‘सकूल नहीं जाना कमीनियांें।’’ रीना मुंह धोन चली गई, सीमा ने फटी–गंदी सी वर्दी पहन ली। रीना आई तो सीमा चली गई। चंदा ने रमेश को उठाया– ‘उठ बागड़ी, सुबह हो गई है।’ उसने करवट बदल ली। चंदा ने गाली दी– ‘‘हरामी उठ जा, चाय रखी है पी लियो’’ चली गई। रमेश वैसे ही सोता रहा। चंदा ने फिर गालियां दी। रमेश ने अब आंखें खोल ली। उठ कर चारपाई पर ही बैठ रहा। सिरहाने रखी चाय पी। किवाड़ पर टंगा पैज़ामा पहना। डब्बा उठा चल दिया।
करीब 7 बजे होंगे। पास किसी दुकान से फिल्मी गीतों की आवाज आ रही थी। बाहर नल पर पानी भरने वाली औरतों का जमघट लग चुका था। बाल्टियों की आवाज.... , पहले पानी भरने के लिए सभी लड़ रही थी। बस्ती की कोने वाली चाय की दुकान पर कुछ लोग बीडि़यों के धूएं में गपशप कर रहे थे। रमेश भी बीड़ी पीने के लिए यहीं खड़ा हो गया। चंदा बाहर आई, प्रवीन से पूछा ‘‘टैम कितना हुआ है।’’ 7 बज चुके हैं। 7: 30 का स्कूल था। फटा बस्ता लिए दोनो बच्चियां स्कूल की ओर चल दी। जैसे उनकी मजबूरी हो। रानी ने तो छठी में ही स्कूल जाना छोड़ दिया था। अब उसकी शादी की बात चल रही है... चंदा, होगी कोई ..... तीस एक साल की... रंग सांवला। शरीर और चेहरा पतला। चेहरे पर चेचक जैसे कुछ दाग। बाल हमेशा उलझे हुए.. बिल्कुल उसकी जिन्दगी की तरह। एक छोटी चोटी पीठ पर झुलती रहती है। तीखी आवाज। छोटी छोटी बात पर किसी से भी लड़ने लगती है। आस पड़ोस के लोग उसके मुंह नहीं लगना चाहते – वे गालियां खूब बकती है। कौन सी बात उसे बुरी लग जाए...... कब किस बात पर लड़ने लगे कुछ मालूम नही। और किसी की लड़ाई हो तो बीचबचाव के लिए सबसे पहले पहुंच जाती है। गली के बाहर चारपाई पर बैठ अकेले बीड़ी पीती है, कभी कभी शराब भी। जब कभी शराब पीती है तो रमेश को गालियां देती है कई बार तो उसने उसे पीटा भी। लेकिन रमेश ने कभी नहीं मारा। वह अक्सर चुप ही रहता है।
गली मे दीवार के साथ खड़ी साईकिल रोज़ सुबह उसका इंतजार करती रहती है। वह साइकिल उठाती और रईसों की कॉलोनी की ओर निकल जाती है। पिछले 9 सालों से वे यहां रोज आ रहीं है। घरों में बर्तन–भांडा, झाडु–पोछा और कपड़े लत्ते धो कर कुछ रूपया कमाने। कहीं से कुछ खाने को मिल जाता है और कभीे कभी पुराने कपड़े। जब शादी हई तो 17 साल ही की थी। चार साल में 3 लड़कियां पैदा हो गईं। रमेश शराब पी कर घर पर ही पड़ा रहता। शादी के बाद कोई सुख नहीं मिला, जिम्मेदारियां और बढ़ गयी। गरीबी तो बाप के घर में भी थी पर जिम्मेदारी नहीं थी। बीना ने उसे यहां काम दिलाया था। शुरू में 75 रूपये एक घर से मिले अब उसे 200 रूपये मिलतें हैं। पैसों और काम को लेकर कई कई बार उसे मालकिन से लड़ना पड़ा है। काम छुटता रहा है, नया लगता रहा है।
अपनी बस्ती से कॉलोनी में पहुंचने में उस 25 मिनट लगते हैं। 2 साल तक पैदल ही आती जाती रही। फिर एक साईकिल का इंतजाम कर लिया। साईकिल उसने खरीदी नहीं थी। एक दिन शाम को लौटते हुए किसी औरत को साईकिल चलाते हुए देख लिया था। तभी से साईकिल खरीदने की ललक पैदा हो गई थी। उस रात सोई नहीं थी। अगले दिन काम पर भी नहीं गई। मार्किट से नयी साईकिल की कीमत मालूम की, औकात से बाहर थी। पूरे इलाके में घूमती रही, कोई पुरानी साईकिल बेच रहा हो। उसके पास उतने रूपये नहीं थे की पुरानी ही खरीद सके। कुछ दिन गुजरे। साईकिल का ख्याल दिमाग से ना निकल पाया। इस उम्मीद से की कभी साईकिल ले पाएगी, पास के प्रवीन से चलाना सीख लिया। कई बार गिरी। चोटें लगी। दूसरों को भी लगीं। कुछ दिन में सीख तो गई। रूपयों की दिक्कत तो आज भी वैसे ही थी। काम पर जाते हुए उसे साईकिल याद आती, लौटते हुए भी।
एक शाम लौटते हुए सड़क के किनारे पेड़ के सहारे साईकिल खड़ी थी। चन्दा ने देखा आसपास कोई नहीं था। खड़ी रही। साईकिल उठाई। चलती बनी। उसका मानना है कि मैंने चोरी नहीं की वो तो सड़क पर पड़ी मिल गई थी। अब ये उसकी अपनी साईकिल है। मजाल किसी की कोई उसकी मर्जी के बगैर छू तो ले। साईकिल की फिटनस का ख्याल है उसे।
अब शाम होने से पहले लौट आती है। वह लौटी तो रानी ने चाय दी। पी। चारपाई लेकर बाहर सड़क के किनारे बैठ गई। बीड़ी सुलगाई। वहीं से चिल्लाने लगी ‘ अरी रंडियों कभी तो नल खाली छोड़ दिया करो।’ उठी। सब्जी वाले के पास खड़ी हो गई। बीड़ी मुंह में दबायी। आलू छाटे। थोड़ा हरा धनियां भी ले लिया। कहा– पैसे कल ले लियो।’ रहमत अली उसकी आदत से वाकिफ है, जानता है कल का मतलब। अभी पैसे मांगेगा तो गालियां सुननी पडे़गी। हरामी, भागी जा रही हूं रंडूए के पैसे लेके। सब्जी सीमा को रख आने के लिए दी। चल दी। बस्ती में घूमती है, सबसे हालचाल पूछती है, बैठती है, घर में घूस जाती है। जैसे मसीहा हो सबकी, मगर लड़ते हुए हाथापायी पर उतरु हो जाती है। एक बार तो उसने घर के आगे बिखरे कुड़े को लेकर गली के ही मोटे को पीट दिया था। मोटे ने भी घुमाके जोरदार दो झापड़ जड़ दिए। पुलिस वुलिस भी आयी। मोटे को पकड़ ले गयी। जब षाम तक चंदा का गुस्सा ठंडा हुआ तो खुद ही मोटे को छुड़ाने चली गयी.... वो ऐसी ही हैं
कई साल गुजर चुके हैं... अब मैं उस जगह पर नहीं जाता... मगर सुना है कि चंदा बूढी हो गयी है... चंदा पहले से ज्यादा दुबली दिखने लगी है... कम उम्र में उम्र दराज लगती है... दो बेटियों की षादी हो गयी है और तीसरे के लिए लड़का देख रही है... काम पर अब भी जाती है...रविवार के दिन कभी धूप में कभी छांव में उधड़ी हुई चारपाई लिए बैठी रहती है और अकेले ही कुछ कुछ बुदबुदाती है जैसे अपने आपको दिलासा दे रही हो....
कहानी अच्छी और यथार्थ के करीब है। ऐसी ना जाने कितनी ही चन्दा रोज दिखती है।
जवाब देंहटाएंकहानी एवं शब्द चित्रण बहुत सटीक है-बिल्कुल देखा सुना सा.
जवाब देंहटाएंshayad ye tumhare producer hone ka asar hai ki bilkul shot by shot kahani likhi hai :) .. lekin is se jo chitrankan hua hai, wo laajawab hai!
जवाब देंहटाएंaisa laga k kisi aise k baare mein likha hai jo humare aas paas hi reh rahi hai...kisi ki zindagi ki kathnaaiyon se avgat karati tumhari yeh kahani..humein ehsaas dilaati hai...k humare paas jo hai woh kam nahi hai :)
जवाब देंहटाएंLanguage was a bit crude..which i had not heard in the past 3 years since the tym i'm in south :)