एक किसान के हल की कीमत

देश में सूखे के हालात है। सूखे से सबसे ज्यादा हताश और प्रभावित किसान है। इन दिनों सबसे बड़ा और संवेदनशील मुद्दा सूखा और किसान होना चाहिए। ये कोई ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं है। इसलिए ऐसी खबरों की स्याही अखबार के पन्नों पे हल्की पड़ जाती है।

पिछले दिनों खबरों की दुनिया में एक खबर दबी रह गयी। इस खबर ने पाठकों पर अमिट प्रभाव नहीं छोड़ा और चैनलों ने इसपर नज़र तक नहीं फेरी। यकीनन ये सनसनीखेज नहीं थी। ये खबर एक किसान की थी। खबर के मुताबिक जौनपुर के गौराबादशाहपुर में किसान राजबहादुर की स्थिति प्रेमचंद के किसानों जैसी है। तकरीबन नौ साल पहले राजबहादुर ने किसी साहूकार से अपनी माली हालत के चलते 300 रूपये कर्ज़ लिया और बदले में अपना हल गिरवी रख दिया। इन नौ सालों में ब्याज के तौर पर 25 हज़ार रूपये चुकता कर दिए गए हैं। लेकिन असल मूल अभी तक चुकाना बाकी है। यही नहीं दबंग साहूकार ने मज़बूर किसार की दो बिस्वा ज़मीन पर भी कब्ज़ा कर लिया है। इस सच्चाई के बाद 1936 और 2009 में कोई फर्क नहीं आया है। 1936 में किसान की स्थिति को बयां करता प्रेमचन्द का उपन्यास गोदान प्रकाशित हुआ था।
ये तो थी खबर। अब देखिए खबर का प्रभाव। कोरपोरेट जगत का गुलाम हमारा मीडिया कितना संवेदनहीन हो गया है। चैनलों की नज़र में इस खबर की कोई औकात नहीं है। चैनलों को ऐसी खबरों से कोई सरोकार भी नहीं है। क्योंकि ये खबर दर्शकों की भीड़ इकट्ठा नहीं कर सकती और मैट्रों शहरों के बाज़ार और मध्यवर्ग के बीच बिकने के काबिल भी नहीं है। अगर किसी राखी सावंत ने साहूकार से कज़Z लिया होता और राखी सावंत चुकाने में नाकाम रहती। तब हमारे टीवी चैनलों के तथाकथित पत्रकारों की संवदेनाएं जागृत हो जातीं। फिर `राखी का कज़Z´ नाम का एक नया रियलिटी शो लॉंच होता और तमाम खबरियां चैनल राखी की दयनीय दुर्दशा पर आंसू घर घर में बहा रहे होते। चीख-चीख के बता रहे होते की फलां के साथ कितना अन्याय हो रहा है। खैर, टीवी द्वारा दिखाए जा रहे ड्रामाओं पर कुछ कहने की जरूरत नहीं।
बस इतना कह देना भर काफी है कि खबरों की परिभाषा बदल चुकी है। पत्रकारों और दर्शकों दोनों में ही संवदेनशीलता बची ही नहीं है। जर्जर हालत में खड़े चौथे खंभे पे बाज़ारी कुत्तों ने मूत दिया है।

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