शनिवार, 4 जनवरी 2020



कुछ अधूरे-अनकहे किस्से हैं
कुछ धुंधले-धुंधले ख्वाब हैं
कुछ बिखरे-बिखरे पन्ने हैं
कुछ गुज़रा-गुज़रा वक्त है
और
जब शाम
चौखट पर दस्तख देती है
वो धीमे-धीमे आती है
वो कतरा-कतरा बहती है
वो सहमी-सहमी होती है
और
जब रात का पहरा होता है
कुछ तन्हा-तन्हा होते हैं
कुछ चुप-चुप से रहते हैं









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