गलियों, सड़कों
और चौराहों पर,
बिखरा सन्नाटा
देख कर..
गिलहरियां,
कुंदती-फांदती
घूम रही हैं इधर-उधर।
बिल्लियां,
बेफिक्र
रास्तों पर टहल सकती हैं अब।
कुत्ते,
मुआयना कर
मूत रहे हैं अवशेषों पर।
मछलियां
नालों से
नदियों में
सांस ले रही हैं फिर से
कौवे, कबूतर, फाख्ता और
चिड़िया, तोते
निडर,
उड़ रहे हैं
खुले आसमान में।
कहीं-कहीं
धरातल से,
अंकुर फूट रहे हैं ऐसे
जैसे
जंगल बन जाने को बेताब हैं
इन सब के लिए
इंसान लुप्त हो रहा है जैसे।
और चौराहों पर,
बिखरा सन्नाटा
देख कर..
गिलहरियां,
कुंदती-फांदती
घूम रही हैं इधर-उधर।
बिल्लियां,
बेफिक्र
रास्तों पर टहल सकती हैं अब।
कुत्ते,
मुआयना कर
मूत रहे हैं अवशेषों पर।
मछलियां
नालों से
नदियों में
सांस ले रही हैं फिर से
कौवे, कबूतर, फाख्ता और
चिड़िया, तोते
निडर,
उड़ रहे हैं
खुले आसमान में।
कहीं-कहीं
धरातल से,
अंकुर फूट रहे हैं ऐसे
जैसे
जंगल बन जाने को बेताब हैं
इन सब के लिए
इंसान लुप्त हो रहा है जैसे।
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