मुझे अपना बचपन बखूबी याद है। आज जब अपने आसपास के बच्चों को देखता हूं तो हैरान-परेशान हो जाता है। ज़माना कितना बदल गया है। बच्चों का बचपन कितना बदल गया है। हम जब छोटे थे तो हमारा ज्यादातर समय पढ़ाई के अलावा कंचे खेलने, पिट्ठु खेलने, कबड़्डी और खो-खो खेलने या फिर छुपन-छुपायी खेलने में गुजरता था। टीवी की महामारी उस समय फैली नहीं थी। खेल से उकता जाते तो नंदन, चंदामामा, चंपक और चाचा चैधरी, पिंकी, बिल्लू, लम्बू-छोटू की काॅमिक्स पढ़ते। ये हमारा बचपन था।
आजकल के बच्चों इन खेलों और किताबें से बेहद दूर है। मौजूदा दौर के बच्चें टीवी महामारी के बाद इंटरनेट के बुखार से इस कदर पीड़ित है कि उनका ज्यादातर समय कंप्यूटर के सामने बीत रहा है। वे इतने आधुनिक हो गए है कि वे ज़मीनी खेल से कोसो दूर कम्प्यूटर पर खेलते कूदते है, वहीं खाते-पीते है और वहीं उनके नए नए दोस्त भी बनते हैं। क्या आजकल के बच्चों का बचपन कहीं खो गया है या फिर बचपन का स्वरूप ही बदल गया है?
अब छोटे-छोटे बच्चों के मुंह से ‘‘तोते को बुखार है....‘‘, ‘‘चंदा मामा दूर के‘‘ जैसे कविताएं याद नहीं होती। इस ज़माने के बच्चों को मैंने कई बार मुन्नी बदनाम हुई.. शीला की जवानी जैसे गाने गुनगुनाते सुना और देखा है। ये बच्चे जब थोड़े से बड़े होते है तो इनका स्वागत होता है सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर। ‘ऑनलाइन सोशल मीडिया’ की रिपोर्ट के मुताबिक सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट की दुनिया में वर्ष 2004 में कदम रखने वाले फेसबुक के सदस्यों की संख्या में 80 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है. इसमें हर उम्र के लोग शामिल है। 80 करोड़ के इस आंकड़ों में भारतीय बच्चों की संख्या किसी से कम नहीं है। पिछले दो साल में स्कूल जाने वाले शहरों के ज्यादातर बच्चों ने बहुत तेजी से फेसबुक पर अपने अकाउंट खोले है और अपने अकाउंट का रोजाना स्टेटस भी चेक करते हैं। अब उनके पास उतना वक्त नही की वे पारंपरिक खेल खेलें या फिर स्कूली किताबों के अलावा पंचतंत्र पढ़े सके। शायद ही आजकल के 100 में से पांच बच्चें पंचतंत्र की कहानिया पढ़ते होंगे?
भारत में इंटरनेट के प्रयोग में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई हैं। भारत में इंटरनेट के उपभोक्ता मुख्य रूप से युवा पीढ़ी के हैं। भारत में सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स इंटरनेट के कुल उपभोक्ताओं में से 84 प्रतिशत तक पहुंच रही हैं। आखिर हम अपने बच्चों को किस दिशा में लेकर जा रहे हैं? आखिर क्यों सोने से पहले हम अपने बच्चों को राजा-महाराजी या परियों की कहानी नहीं सुनाते? जैसे यादे हमारी और आपके बचपन की हैं क्या हमारे बच्चे भी अपने बचपन को वैसे ही याद कर पाएंगे? तस्वीर बेहद धूंधली है।
आजकल के बच्चों इन खेलों और किताबें से बेहद दूर है। मौजूदा दौर के बच्चें टीवी महामारी के बाद इंटरनेट के बुखार से इस कदर पीड़ित है कि उनका ज्यादातर समय कंप्यूटर के सामने बीत रहा है। वे इतने आधुनिक हो गए है कि वे ज़मीनी खेल से कोसो दूर कम्प्यूटर पर खेलते कूदते है, वहीं खाते-पीते है और वहीं उनके नए नए दोस्त भी बनते हैं। क्या आजकल के बच्चों का बचपन कहीं खो गया है या फिर बचपन का स्वरूप ही बदल गया है?
अब छोटे-छोटे बच्चों के मुंह से ‘‘तोते को बुखार है....‘‘, ‘‘चंदा मामा दूर के‘‘ जैसे कविताएं याद नहीं होती। इस ज़माने के बच्चों को मैंने कई बार मुन्नी बदनाम हुई.. शीला की जवानी जैसे गाने गुनगुनाते सुना और देखा है। ये बच्चे जब थोड़े से बड़े होते है तो इनका स्वागत होता है सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर। ‘ऑनलाइन सोशल मीडिया’ की रिपोर्ट के मुताबिक सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट की दुनिया में वर्ष 2004 में कदम रखने वाले फेसबुक के सदस्यों की संख्या में 80 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है. इसमें हर उम्र के लोग शामिल है। 80 करोड़ के इस आंकड़ों में भारतीय बच्चों की संख्या किसी से कम नहीं है। पिछले दो साल में स्कूल जाने वाले शहरों के ज्यादातर बच्चों ने बहुत तेजी से फेसबुक पर अपने अकाउंट खोले है और अपने अकाउंट का रोजाना स्टेटस भी चेक करते हैं। अब उनके पास उतना वक्त नही की वे पारंपरिक खेल खेलें या फिर स्कूली किताबों के अलावा पंचतंत्र पढ़े सके। शायद ही आजकल के 100 में से पांच बच्चें पंचतंत्र की कहानिया पढ़ते होंगे?
भारत में इंटरनेट के प्रयोग में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई हैं। भारत में इंटरनेट के उपभोक्ता मुख्य रूप से युवा पीढ़ी के हैं। भारत में सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स इंटरनेट के कुल उपभोक्ताओं में से 84 प्रतिशत तक पहुंच रही हैं। आखिर हम अपने बच्चों को किस दिशा में लेकर जा रहे हैं? आखिर क्यों सोने से पहले हम अपने बच्चों को राजा-महाराजी या परियों की कहानी नहीं सुनाते? जैसे यादे हमारी और आपके बचपन की हैं क्या हमारे बच्चे भी अपने बचपन को वैसे ही याद कर पाएंगे? तस्वीर बेहद धूंधली है।
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