मेरे घर का रास्ता यहीं से होकर जाता है आगे एक चौराह है थोडा सा दाएं जाना है फिर एक नाला है उसे पार कर जाना है थोडा सा आगे और आगे जाना है किनारे पे बसी एक बदनाम सी बस्ती है बस यही मेरी हस्ती है मेरे घर का रास्ता नाले के उस पार से रहमत अली के सब्जी के ठेले से शमशान तक यूं ही चला जाता है चौराहे से दाएं मुडी हुइ सडक के साथ साथ कुछ उजडी सी कुछ बसी सी ये जो बस्ती है यही मेरी हस्ती है मेरे घर का रास्ता पहले मोड़ पे पहचान लिया जाता है आगे सार्वजनिक शौचालय का अवशेष है जिसमें शौचालय को छोड़ कर बाकी सब शेष है जिसकी दीवार पर लिखा है प्रयोग करना मना है जो शेष है उसमें शौचालय का गेट है और खुला पड़ा पूरा मैदान है कचरा जो सड़क तक फैल आया है कचरे के ढे़र पे सुअरों कुत्तों और गायों का मेला है बस वहीं मेरी बस्ती है यही मेरी हस्ती है मेरे घर का रास्ते की तीसरी गली में बीचों बीच बहती छोटी सी नाली है बीच में ही खड़ी छेञपाल की उधड़ी हुइ चारपाइ दीवार से सटी चंदा की साइकिल किसी का रास्ता नहीं ...
साहित्य से अनजान लोगों की जुबान पर भी प्रेमचन्द और उनके उपन्यास ‘गोदान’ का नाम आसानी से मिल जाता है। प्रेमचन्द ने गोदान को 1932 में लिखना शुरू किया था और 1936 में प्रकाशित करवाया। उनके बेटे अमृतलाल के अनुसार इस उपन्यास को लिखने की प्रक्रिया काफी धीमी रही। दरअसल प्रेमचन्द उन दिनों काफी संघर्ष कर रहे थे, उनकी पत्रिका ‘हंस’ और ‘जागरण’ की स्थिति बेहद खराब थी। इन्हीं कारणों से गोदान का प्रकाशन काफी देर से हुआ। लेकिन मुझे लगता है कि प्रेमचन्द ‘गोदान’ के भविष्य से परिचित थे। वे उपन्यास की कथावस्तु और चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय करना चाहते थे, इसलिए चार वर्षों तक वे कथावस्तु, विषयवस्तु और चरित्रों को निखारते रहे होंगे। अपने लेखन से पूर्णत: संतुष्ट होने पर ही उन्होंने इसका प्रकाशन कराया। चार वर्षों की उनकी साधना ने हिन्दी साहित्य जगत को एक अमर रचना प्रदान की।गोदान ने प्रेमचन्द को उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां आजतक कोई दूसरा ना पहुंच सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य को अय्याशी और तिलस्म की जंजीरों से मुक्त कर, एक नया रूप दिया था। यूं तो उनकी दूसरी रचनाएं प्रेमा, पे्रमाश्रम, सेवासदन, गबन, कर्मभूमि...
जिस दुकान से घर को राशन आता है वहां 14 साल का एक बच्चा काम करता है। सुबह घर पर कचरा लेने जो बाई आती है, उसके साथ कूड़़े से भरा रिक्शा चलाने वाला 11 साल का एक लड़का है। सर्विस के लिए मेरी बाईक जिस मैकेनिक के पास जाती है वहां धुलाई का काम एक बाल मैकेनिक करता है। ऑफिस के बाहर फुटपाथ पर लगी जिस दुकान से हम चाय पीते है वहां भी एक छोटू है। जिस ढाबे पर अक्सर दोस्तों के साथ लंच करने चला जाता हूं वहां भी बर्तन धोने के लिए 9 साल का बच्चा है। ये मेरे-आपके आसपास का परिदृश्य है। ये वो बच्चे है जो परिवार के माई-बाप हैं। ये उस देश की दास्तान है जहां तकरीबन 23 सालों से बाल-मज़दूरी पर पाबंदी है। मतलब पिछले दो दशकों से इस कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हो रहा है। सबसे ज्यादा बाल-मजदूर भारत में ही हैं। एक अनुमान के मुताबिक देशभर में 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूर हैं। ये बाल मज़दूर िशक्षा से दूर और मज़बूरी में रोज़ी-रोटी के लिए काम करते हैं। देश के 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूरों में से सिर्फ 15 फीसदी को ही मजदूरी से मुक्ति मिल पायी है। 23 सालो ंसे लागू कानून से ये तो साफ है कि कानून और योजनाएं बना देने से स्थितियां नहीं...
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