मुझे अपना बचपन बखूबी याद है। आज जब अपने आसपास के बच्चों को देखता हूं तो हैरान-परेशान हो जाता है। ज़माना कितना बदल गया है। बच्चों का बचपन कितना बदल गया है। हम जब छोटे थे तो हमारा ज्यादातर समय पढ़ाई के अलावा कंचे खेलने, पिट्ठु खेलने, कबड़्डी और खो-खो खेलने या फिर छुपन-छुपायी खेलने में गुजरता था। टीवी की महामारी उस समय फैली नहीं थी। खेल से उकता जाते तो नंदन, चंदामामा, चंपक और चाचा चैधरी, पिंकी, बिल्लू, लम्बू-छोटू की काॅमिक्स पढ़ते। ये हमारा बचपन था। आजकल के बच्चों इन खेलों और किताबें से बेहद दूर है। मौजूदा दौर के बच्चें टीवी महामारी के बाद इंटरनेट के बुखार से इस कदर पीड़ित है कि उनका ज्यादातर समय कंप्यूटर के सामने बीत रहा है। वे इतने आधुनिक हो गए है कि वे ज़मीनी खेल से कोसो दूर कम्प्यूटर पर खेलते कूदते है, वहीं खाते-पीते है और वहीं उनके नए नए दोस्त भी बनते हैं। क्या आजकल के बच्चों का बचपन कहीं खो गया है या फिर बचपन का स्वरूप ही बदल गया है? अब छोटे-छोटे बच्चों के मुंह से ‘‘तोते को बुखार है....‘‘, ‘‘चंदा मामा दूर के‘‘ जैसे कविताएं याद नहीं होती। इस ज़माने के बच्चों को मैंने कई बार मुन्नी बदना
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें