सोमवार, 13 जुलाई 2009

परिवार के माई-बाप बाल मज़दूर


जिस दुकान से घर को राशन आता है वहां 14 साल का एक बच्चा काम करता है। सुबह घर पर कचरा लेने जो बाई आती है, उसके साथ कूड़़े से भरा रिक्शा चलाने वाला 11 साल का एक लड़का है। सर्विस के लिए मेरी बाईक जिस मैकेनिक के पास जाती है वहां धुलाई का काम एक बाल मैकेनिक करता है। ऑफिस के बाहर फुटपाथ पर लगी जिस दुकान से हम चाय पीते है वहां भी एक छोटू है। जिस ढाबे पर अक्सर दोस्तों के साथ लंच करने चला जाता हूं वहां भी बर्तन धोने के लिए 9 साल का बच्चा है।

ये मेरे-आपके आसपास का परिदृश्य है। ये वो बच्चे है जो परिवार के माई-बाप हैं। ये उस देश की दास्तान है जहां तकरीबन 23 सालों से बाल-मज़दूरी पर पाबंदी है। मतलब पिछले दो दशकों से इस कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हो रहा है।

सबसे ज्यादा बाल-मजदूर भारत में ही हैं। एक अनुमान के मुताबिक देशभर में 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूर हैं। ये बाल मज़दूर िशक्षा से दूर और मज़बूरी में रोज़ी-रोटी के लिए काम करते हैं। देश के 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूरों में से सिर्फ 15 फीसदी को ही मजदूरी से मुक्ति मिल पायी है। 23 सालो ंसे लागू कानून से ये तो साफ है कि कानून और योजनाएं बना देने से स्थितियां नहीं बदलती।

ऐसा इसलिए क्योंकि कानून बाल-मजदूरी के पीछे की मजबूरियों को नहीं जानता। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक ये वही देश है जहां करीब 84 करोड़ जनता की आमदनी 20 रूपये से भी कम है। बाल मजदूरी के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करने वाली सरकारें और गैर सरकारी संगठन बाल मजदूरों को मुक्त कराने का ठेका लिए घुम रहे हैं। इन मजबूरों की मजदूरी छिनने का मतलब है कि आप उनकी रोज़ी रोटी छिन रहे है। बाल मजदूरी खत्म करने से पहले सरकार दो जून की रोटी मुहैया कराए। जिसकारण से ये बच्चे अपने और परिवार के पेट के लिए मजदूरी करते है।

जिस देश में उन बेसहारा परिवारों की संख्या बढ़ रही हो जिन्हें जीने के लिए रोजाना संघर्ष करना पड़ रहा है, उस देश में बाल-मजदूरों की संख्या कम होना बहुत मुश्किल है। सरकार को बाल-मजदूरी के असली कारणों को जानने के लिए गरीबी की जड़ों में जाना होगा।

क्राई की रिपोर्ट के मुताबिक 90 प्रतिशत बाल मजदूर ग्रामीण इलाकों में हैं। सरकार कितने सख्त कानून और योजनाएं बना लें बाल मजदूरी खत्म नहीं होगी। सरकार गरीबों के पेट भरने का पुख्ता इंतजाम कर दें फिर ये िशि़क्षत भी हो जाएंगे और बाल मजदूरी भी खत्म हो जाएगी।

खाली पेट पढने में किसी का मन नहीं लगता। सरकार को ये जान लेना चाहिए कि मिड डे मील योजना एक बच्चे का पेट भरती है उस परिवार का नहीं जिसके लिए ये बच्चे श्रम करते हैं।

1 टिप्पणी:

  1. प्रिय फ्रैंकलिन जी/सर
    अच्छे लेख के लिए सर्वप्रथम साधुवाद. लेख पढ़ने पर बरबस राजेश जोशी की लिखी कविता " बच्चे काम पर जा रहे है " याद आ जाती है
    नीचे आपके लिए प्रेषित कर रहा हूँ.

    आभार
    मोहन जोशी

    बच्चे काम पर जा रहे है ......

    कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

    सुबह सुबह

    बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

    हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह

    भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना

    लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

    काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

    क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें

    क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं

    सारी रंग बिरंगी किताबों को

    क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं

    सारे खिलौने

    क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं

    सारे मदरसों की इमारतें

    क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन

    खत्‍म हो गए हैं एकाएक

    तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?

    कितना भयानक होता अगर ऐसा होता

    भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह

    कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

    पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए

    बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे

    काम पर जा रहे हैं।

    -राजेश जोशी

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