गुरुवार, 30 जुलाई 2009

गोदान-भारतीय किसान की आत्मकथा

साहित्य से अनजान लोगों की जुबान पर भी प्रेमचन्द और उनके उपन्यास ‘गोदान’ का नाम आसानी से मिल जाता है। प्रेमचन्द ने गोदान को 1932 में लिखना शुरू किया था और 1936 में प्रकाशित करवाया। उनके बेटे अमृतलाल के अनुसार इस उपन्यास को लिखने की प्रक्रिया काफी धीमी रही। दरअसल प्रेमचन्द उन दिनों काफी संघर्ष कर रहे थे, उनकी पत्रिका ‘हंस’ और ‘जागरण’ की स्थिति बेहद खराब थी। इन्हीं कारणों से गोदान का प्रकाशन काफी देर से हुआ। लेकिन मुझे लगता है कि प्रेमचन्द ‘गोदान’ के भविष्य से परिचित थे। वे उपन्यास की कथावस्तु और चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय करना चाहते थे, इसलिए चार वर्षों तक वे कथावस्तु, विषयवस्तु और चरित्रों को निखारते रहे होंगे। अपने लेखन से पूर्णत: संतुष्ट होने पर ही उन्होंने इसका प्रकाशन कराया। चार वर्षों की उनकी साधना ने हिन्दी साहित्य जगत को एक अमर रचना प्रदान की।गोदान ने प्रेमचन्द को उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां आजतक कोई दूसरा ना पहुंच सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य को अय्याशी और तिलस्म की जंजीरों से मुक्त कर, एक नया रूप दिया था। यूं तो उनकी दूसरी रचनाएं प्रेमा, पे्रमाश्रम, सेवासदन, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि पहले ही ख्याती प्राप्त कर चुके थे। किन्तु गोदान उनकी दूसरी तमाम रचनाओं में अव्वल दर्जे का उपन्यास साबित हुआ।साहित्य में रूचि न रखने वाले लोगों ने भी इसे पढ़ा, साहित्य प्रेमियों ने तो कई–कई बार पढ़ा। समीक्षक–आलोचक गोदान पर अपनी कलम ना रोक सके। देशी–विदेशी हर भाषा में गोदान का अनुवाद हुआ। सभी जगहों पर प्रेमचन्द की इस अमर रचना को सम्मान दिया गया। आखिर क्यों?हिन्दी साहित्य में गोदान को भारतीय किसान के जीवन पर आधारित महाकाव्य का दर्जा दिया गया है। यह औपनिवेशिक भारतीय गांव के किसान, होरी की दर्दनाक महाजनी शोषण की दास्तान है। प्रेमचन्द एक युग के जागरूक लेखक थे। वो जो देख रहे थे, अपनी रचनाओं में पाठकों को वही सब दिखाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन गोदान ने समाज में मौजूद तमाम विसंगतियों, किसानों की स्थिति, महाजनों का अत्याचार, शोषक–शोषित वर्ग, अछूत समस्या, ऊंची–नीची जातियों के आधार पर बटे समाज की छवि को एकदम स्पष्ट दिखा दिया था। जो पहले कि दूसरी तमाम रचनाएं और लेखक ना कर सके थे।गोदान अपने दौर का एक ऐसा आईना है जिसमें तत्कालीन समाज का असली चेहरा साफ नज़र आता है। 1929–33 की विश्व आर्थिक मन्दी के प्रभाव ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ रखी थी और कांग्रेसी किसान–संघर्षों को नेतृत्व देने से कतरा रहे थे। दूसरी ओर गांधीवाद से निराश हजारों साम्राज्यविरोधीं, समाजवाद के उग्रवादी चिंतन की दिशा में जा रहे थे। 1934 में आन्दोलन चरम पर था जिसे अचनाक वापस ले गया। ये वो बिन्दु था जब गांधी के प्रति प्रेमचन्द की आस्था टूटती है। वे गांधीवाद से अपने आपको मुक्त कर लेते हैं। इस कारण, अन्य रचनाओं की अपेक्षा, गोदान में सामाजिक यथार्थवाद की आवाज बेहद तीखी, आलोचनात्मक और सशक्त हुई है। हालांकि कर्मभूमि और 1930 के बाद की कहानियों में प्रेमचन्द को झुकाव आदर्शवाद की बजाय यथार्थवाद की तरफ दिखाई देने लगा था।ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द उस दौर से इतने प्रभावित हुए कि गोदान लिखना उनकी मजबूरी बन गया। एक ओर गांधीवाद से उनकी आस्था टूटती थी तो दूसरी ओर भारतीय किसान की स्थिति उन्हें कटोच रही थी। जिससे प्रभावित होकर वे ‘होरी’ की कल्पना करते हैं। गोदान का नायक ‘होरी’ शोषित भारतीय किसान का प्रतीक बन गया। प्रेमचन्द ने होरी के जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला। जिससे एक होरी में तत्कालीन पूरी किसान जाति की छवि उभर आयी। विस्तृत चित्रण ओर समाज के प्रति प्रेमचन्द की पारखी नज़र से गोदान भारतीय किसान की आत्मकथा बन गया।तत्कालीन परिवेश में लिखी इस रचना का महत्व आज भी उतना ही है। यकीनन, तब और अब में फर्क आया है। समय बदला है। सदी बदली है। किन्तु किसान की स्थिति वैसी ही है। पहले वे महाजन का ऋण चुकाते थे, अब वे बैंको का ऋण चुकाते हैं। गोदान में प्रेमचन्द सिफ‍र् किसान की ही बात नही करते। बल्कि अछूतों और अन्य पिछड़े हुए वर्गों की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, समस्याओं का विशद चित्रण करते हैं। इसके साथ ही तथाकथित ऊंची जाति और वर्ग के जमींदारों, महाजनों, सरकारी पदाधिकारियों के पांखडी चरित्र से भी रू–ब–रू कराते हैं।इससे पहले और बाद की रचनाओं में ऐसी विषयवस्तु, ऐसी कथावस्तु, ऐसे चरित्र नहीं देखे गए। यू तो गोदान बेहद साधारण रचना है। और उसकी यही साधारणता, उसे एक असाधारण रचना बना देती है।

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