सोमवार, 27 जुलाई 2009

अग्रसेन की सूखी-खामोश विरासत



बस यूंही अचानक उस रास्ते पहुंच गया था। पिछले 12 सालों से यहां से गुजर रहा था मगर मुझे इसका पता नहीं था। शहर की मशहूर सड़क बाराखम्भा के बीच से बल खाता हुआ एक रास्ता प्राचीन इमारत के सामने से गुजर जाता है। रास्ता तो आगे तक निकल जाता है लेकिन यहां से गुजरने वाला हरेक राही पड़ाव में पड़ी अग्रसेन की बावड़ी के सामने कुछ पल के लिए ठहर जाता है।



हम सारे दोस्त अग्रसेन की बावड़ी को ढूंढते ढूंढते यहां तक पहुंचे थे। ऐतिहासिक इमारत के बाहर तीन - चार मजदूर पत्थर तोड़ रहे थे। उन्हीं में से एक से हमने पूछा -``क्या यही है अग्रसेन की बावड़ी। एक मजदूर ने हमे देख कर सिर हिलाया और हम सभी दो टूटी हुइ सीड़ियों से इमारत में दाखिल हो गए।



अपनी जिंदगी में पहली बार बावड़ी देखी। पहली नज़र में अग्रसेन की बावड़ी दिल्ली की दूसरी ऐतिहासिक इमारत की तरह बुरी हालत में नहीं है। कुछ मजदूर अंदर बाहर पत्थर तोड़ते और गारा सानते दिखायी दिए। हमने सामने कई सीढ़ियां नीचे की तरफ जाते हुए देखी। सुना था कि बावड़ियों में पानी होता है लेकिन ये बावड़ी पूरी तरह सुख चुकी है।



हम सभी भागते हुए सीिढयों से उतर कर नीचे जा पहुंचे...उफ वहां बेहद बदबू आ रही थी। काफी गंदगी नीचे जमा हो रखी थी। फिर हम उपर आए ओर पहली मंजिल की तरफ बढ़ गए। मकड़ी के ढेरो जाले,, कबूतर की गुटर गूं.... चमगादड़ों केी चिचयाने की बेसूरी आवाज़...के बीच मैंने एक सांप की बुआ सपोली को भागते हुए देखा। वे कुड़े में कहीं जा छुपी।



अंधेरे को कहीं कही से सूरज की तेज चीरती हुई रोशनी के बीच हम सभी बावड़ी की चारों मंजिलों में फैल चुके थे। एक नज़र उपर उठाकर गुंबद की ओर देखा तो थोड़ी देर के लिए थर्रा गया। ये तो चमगादड़ों को अड्डा बन चुकी है। गुंबद में उल्टा लटके हजारों चमगादड़ महाराजा अग्रसेन को दुआएं दे रहे थे। शहरीकरण के इस दौर में चमगादड़ों को दिन गुजारने के लिए एक इमारत मिल गयी थी जिसे विरासत में अग्रसेन ने छोडा था।



हम सभी इधर उधर इमारत की खाक छानते रहे। हर मंजिल, हर सीढ़ी और इमारत के हर कोने का हमने मुआयना किया। जैसे ही हममें से कोई तीसरी मंजिल में दाखिल होता तो कबूतरों का झुंड तेजी से उड़ता हुआ इमारत से बाहर निकलता और उनके पंखों की फडफडाहट गुंज जाती। मैं, चारू, जीतू, मुकेश, शक्ति, सुब्बा, संगमित्रा, और अरबुदा ने सीढ़ियों के बीचोबीच बैठकर, कभी इमारत की अलग अलग मंजिलों पर खड़े होकर, कभी दीवार के साथ ढेरों फोटो खिचवाई। हमने अग्रसेन की बावड़ी की भी कई तस्वीरे ली।



तकरीबन डेढ़ से दो घंटे कब बीत गए हमे मालूम ही नहीं चला। अब हमारे पास इस खंडहर और खामोश इमारत में घूमने और उसका मुआयना करने के लिए कुछ नहीं बचा। सभी ने वापस चलने का मन बना लिया लेकिन चारू कुछ और देर रूकना चाहता था। लेकिन हम वहां से वापस शहरों की उन्हीं सड़को पर लौटने केे लिए चल दिए। हमने अग्रसेन की सूनी और खामोश पड़ी बावड़ी को एक बार फिर अकेला छोड़ दिया था।

2 टिप्‍पणियां:

  1. nishchay hi hum sab wahaan thori der aur rukte toh baawdi kuch lamha aur kisi ka saath ji leti..baharhaal, mai agle din phir waapas gaya tha wahaan, apne kuch cousins ko lekar..koshish ye hai ki aur bhi logon ko bata sakoon baawdi ke baare me, taaki ek gumnaam zindagi ji rahi us baawdi se reh reh kar koi na koi mil aaya kare..
    wahaan jaane ke baad mujhe jo mehsoos hua, wo sab yahaan apne blog par udel dia hai..
    aap zaroor padhen..

    http://vrittant.blogspot.com/2009/07/blog-post.html

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