भट्टा परसौल - एक और पीपली लाईव
कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएड़ा का एक छोटा सा गांव भट्टा परसौल तमाम न्यूज चैनलों पर छाया रहा। फिल्म पीपली लाइव के पीपली गांव की तरह यहां मीडिया का जमावड़ा था। भट्टा परसौल में भी वहीं देखने को मिल रहा था फिल्म हमने फिल्म पीपली लाइव में देखा था। फिल्म की ही तरह भट्टा परसौल के केन्द्र में भी किसान की दशा थी। पीपली लाइव ने जिस तरह से मूल मसले से भटकते मीडिया का दर्शया था भट्टा परसौल में वहीं सब एक बार फिर देखने-सुनने को मिला। पीपली लाइव और भट्टा परसौल दोनो के ही केन्द्र में सरकारी योजनाओं और नीतियों से त्रस्त, बेहाल और लाचार किसान था और है।
7 मई को भट्टा परसौल किसानों के आक्रोश के चलते अचानक सुर्खियों में आया था। किसानों और पुलिस के बीच मुठभेड़ हुई। दो यहां से मरे दो वहां से भी। हर खबर पर नजर रखने का दावा करने वाला मीडिया सुंघता हुआ यहां आ धमका। फिर इस मुद्दे पर राजनीति का दौर चला। तमाम बड़ी राजनीतिक पार्टी के नेताओं ने राजनीति को चमकाने के मकसद से भट्टा परसौल गांव में घुसने के प्रयास किए। लेकिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के सुरक्षा के पुख्ता चक्रव्यूह को तोड़ने में सभी नाकामयाब रहे।
इस चक्रव्यूह को 11 मई की तड़के 4 बजे कांग्रेस के अभिमन्यु राहुल गांधी ने फिल्मी स्टाइल में तोड़ दिया। बस यहीं से मीडिया के धुरंधरों ने कमान संभाली। असल मुद्दे का रायता फैलाने में माहिर न्यूज चैनलों ने किसान और उसके आंदोलन को भूलकर राहुल गाथा शुरू कर दी। अब हर चैनल पर राहुल गांधी की सनसनी थी। भट्टा परसौल में राहुल गांधी की खबर को छोड़ कर चैनलों के संपादकों ने सारी छोटी-बड़ी खबर गिरा दी थी। खाटी राष्ट्रवादी होने का दिखाव करने वाला अंग्रेजी चैनल, हरसाल नम्बर वन कहने वाले, अंधविश्वास फैलाने वाले और मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रमों के अंश चुराकर अपने कार्यक्रम बनान वाले तमाम हिन्दी न्यूज चैनल गिरगिट की तरह रंग बदलकर राहुलमय हो चुक थे।
इसके बाद किसानों का असल मुद्दा कहीं पीछे छुट गया था। किसानों की जमीन अधिग्रहण के मुद्दे का जितना राजनीतिकरण हुआ उतना ही इसका मीडियाकरण भी हुआ। चैनलों के संपादक के भेजे में किसान मुद्दा नहीं था। खबरों के कोण बदल गए थे। राहुल गांधी भट्टा परसौल में कैसे घुसे? ये सबसे बड़ी खबर थी। राहुल गांधी कड़कती धूप में धरने पर-ये भी खबर थी। राहुल गांधी ने किस थाली में खाना खाया - एक खबरिया चैनल ने ये भी दिखाया। एक हिन्दी के धुरंधर चैनल ने उन लोगों की बातें सुनायी जिनसे राहुल गांधी ने बाते की थी। ये सब देखकर बार बार मेरी आंखों के सामने फिल्म पीपली लाइव के दृश्य आ-जा रहे थे।
राहुल की गिरफ्तारी के बाद टीवी स्क्रिन पर राजनीति करते और आरोप-प्रत्यारोप करते नेता थे, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती थी। इस सब के बीच असल मुद्दा किसान, जमीन अधिग्रहण, उनकी समस्याएं और मांगे गायब थी।
किसी चैनल ने सामाजिक सरोकार के नाम पर किसानों के आंदोलन और जमीन अधिग्रहण के मुद्दे को समझने और समझाने की भरसक कोशिश नहीं की। भट्टा परसौल के बहाने भारत में किसानों की दशा पर विशेष बात नहीं की। कृषि से जुडी सरकारी नीतियों और योजनाओं की बखिया नही उधेडी। जमीन अधिग्रहण विधेयक पर विचार विमर्श नहीं किया। बस इस विधेयक पर थोड़ा से केन्द्र को कोस जरूर दिया। हमारे मीडिया ने बड़ी ही आसानी से खबरों में से किसान को हटाकर राहुल गांधी और राजनीति को विराजमान कर दिया था। और किसी को मालूम भी नहीं चला।
भट्टा परसौल के घटनाक्रम को मीडिया के धुरंधरों ने नौटंकी बनाकर पेश किया। जिस देश की करीब 80 प्रतिशत जनता कृषि और उससे जुड़े कामधंधों से जुड़ी है, जिस देश में 2006 में 17,060 किसानों ने आत्महत्या की। 2008 में 16,196 किसानों ने मौत को गले लगाया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड के मुताबिक 2005 से 2009 तक पांच हजार से अधिक किसानों ने सिर्फ महाराष्ट्र में आत्महत्या की। 2005-07 में आंध्र प्रदेश में 1,313 मामले आये, यही नहीं कर्नाटक, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक हर साल किसान द्वारा आत्महत्या के मामले दर्ज हो रहे हैं। लोकतंत्र का चैथा स्तंभ इस संवेदनशील मसले पर गंभीरता का परिचय देने में नाकामयाब क्यों रहा? सवाल के जवाब में पूंजीवादी और बाजारीकरण का रोना ना रोए।
उत्तर प्रदेश में विभिन्न किस्म के एक्सप्रेस वे और अन्य परियोजनाओं के लिए किसानो से आठ नौ सौ रुपए वर्ग मीटर की जमीन लेकर व्यापारियों और उद्योगपतियों को बीस हजार रुपए वर्ग मीटर के हिसाब बेचा जा रहा है। फिर आखिर क्यों इस मसले को मीडिया ने ज्यादा तवज्जो नही दी।
पीपली लाईव की तर्ज पर भट्टा परसौल में की खबरों को मीडिया ने इतने सनसनीखेज और नाटकी अंदाज में प्रस्तुत किया कि मूल खबर की संवेदनशीलता और गंभीरता ही खतम हो गयी। ब्रेकिंग और टीआरपी के चक्कर में किसानों की जमीन अधिग्रहण की मूल समस्या के साथ किसी भी चैनल की खबर न्याय नहीं कर पाई। हिन्दी अंग्रजी के सभी न्यूज चैनल राजनैतिक दाव-पंेच और राहुल गांधी को लाईव दिखाने के चक्कर में इस कदर उलझ गए थे कि मुख्य किरदार किसान का भूल गए थे।
पीपली लाईव ने न्यूज रूम की हकीकत, इस धंधे की मजबूरी और असल मुद्दे से भटकने की मीडिया की आदत को जिस तरह से पेश किया था वही सब भट्टा परसौल गांव में हुई मीडिया कवरेज में देखने को मिला।
mai poori tarah se tere vichaaron se sahmat naheen hoon.bhatta-parsaul ke ghatnakram ke peechche mool mudda bhoomi-adhigrahan aur rajneeti, dono the.isliye raajneeti par bhi focus hua.jisme mai kuchch ghalat naheen dekhta.aakhirkaar hamari arthvyavastha ko political economy kaha jata hai.jis desh ke aam naagrik ke rozmarra ke jeevan par bhi raajneeti ka asar rehta ho, us desh ke media raajneeti ko apna focus banaye toh usme mujhe koi buraai nazar naheen aati.
जवाब देंहटाएंrahi baat bhoomi adhigrahan ki, toh us par bhi kai TV channels par, khaas kar lok sabha tv par, achchi bahas dekhni ko mili.akhbaaron me bhi vistrit vivaran dekhne ko mila.
haan rahul gandhi ko lekar hamara media nishchit hi obsessed hai.iski jitni aalochana kee jaaye, kam hai.
Thank you for writing this, wish this was taken up more actively in the media.
जवाब देंहटाएंDo you have any insights into farmer suicides? I have been sick to the stomach reading those upsetting stories of farmers commiting suicides for amounts that most urban folks spend at a meal.
Trying to find a NGO that is more closely associated with the isse.
Looking to hear back franklin
Udayan