साहित्य से अनजान लोगों की जुबान पर भी प्रेमचन्द और उनके उपन्यास ‘गोदान’ का नाम आसानी से मिल जाता है। प्रेमचन्द ने गोदान को 1932 में लिखना शुरू किया था और 1936 में प्रकाशित करवाया। उनके बेटे अमृतलाल के अनुसार इस उपन्यास को लिखने की प्रक्रिया काफी धीमी रही। दरअसल प्रेमचन्द उन दिनों काफी संघर्ष कर रहे थे, उनकी पत्रिका ‘हंस’ और ‘जागरण’ की स्थिति बेहद खराब थी। इन्हीं कारणों से गोदान का प्रकाशन काफी देर से हुआ। लेकिन मुझे लगता है कि प्रेमचन्द ‘गोदान’ के भविष्य से परिचित थे। वे उपन्यास की कथावस्तु और चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय करना चाहते थे, इसलिए चार वर्षों तक वे कथावस्तु, विषयवस्तु और चरित्रों को निखारते रहे होंगे। अपने लेखन से पूर्णत: संतुष्ट होने पर ही उन्होंने इसका प्रकाशन कराया। चार वर्षों की उनकी साधना ने हिन्दी साहित्य जगत को एक अमर रचना प्रदान की।गोदान ने प्रेमचन्द को उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां आजतक कोई दूसरा ना पहुंच सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य को अय्याशी और तिलस्म की जंजीरों से मुक्त कर, एक नया रूप दिया था। यूं तो उनकी दूसरी रचनाएं प्रेमा, पे्रमाश्रम, सेवासदन, गबन, कर्मभूमि
जिस दुकान से घर को राशन आता है वहां 14 साल का एक बच्चा काम करता है। सुबह घर पर कचरा लेने जो बाई आती है, उसके साथ कूड़़े से भरा रिक्शा चलाने वाला 11 साल का एक लड़का है। सर्विस के लिए मेरी बाईक जिस मैकेनिक के पास जाती है वहां धुलाई का काम एक बाल मैकेनिक करता है। ऑफिस के बाहर फुटपाथ पर लगी जिस दुकान से हम चाय पीते है वहां भी एक छोटू है। जिस ढाबे पर अक्सर दोस्तों के साथ लंच करने चला जाता हूं वहां भी बर्तन धोने के लिए 9 साल का बच्चा है। ये मेरे-आपके आसपास का परिदृश्य है। ये वो बच्चे है जो परिवार के माई-बाप हैं। ये उस देश की दास्तान है जहां तकरीबन 23 सालों से बाल-मज़दूरी पर पाबंदी है। मतलब पिछले दो दशकों से इस कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हो रहा है। सबसे ज्यादा बाल-मजदूर भारत में ही हैं। एक अनुमान के मुताबिक देशभर में 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूर हैं। ये बाल मज़दूर िशक्षा से दूर और मज़बूरी में रोज़ी-रोटी के लिए काम करते हैं। देश के 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूरों में से सिर्फ 15 फीसदी को ही मजदूरी से मुक्ति मिल पायी है। 23 सालो ंसे लागू कानून से ये तो साफ है कि कानून और योजनाएं बना देने से स्थितियां नहीं
देश में सूखे के हालात है। सूखे से सबसे ज्यादा हताश और प्रभावित किसान है। इन दिनों सबसे बड़ा और संवेदनशील मुद्दा सूखा और किसान होना चाहिए। ये कोई ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं है। इसलिए ऐसी खबरों की स्याही अखबार के पन्नों पे हल्की पड़ जाती है। पिछले दिनों खबरों की दुनिया में एक खबर दबी रह गयी। इस खबर ने पाठकों पर अमिट प्रभाव नहीं छोड़ा और चैनलों ने इसपर नज़र तक नहीं फेरी। यकीनन ये सनसनीखेज नहीं थी। ये खबर एक किसान की थी। खबर के मुताबिक जौनपुर के गौराबादशाहपुर में किसान राजबहादुर की स्थिति प्रेमचंद के किसानों जैसी है। तकरीबन नौ साल पहले राजबहादुर ने किसी साहूकार से अपनी माली हालत के चलते 300 रूपये कर्ज़ लिया और बदले में अपना हल गिरवी रख दिया। इन नौ सालों में ब्याज के तौर पर 25 हज़ार रूपये चुकता कर दिए गए हैं। लेकिन असल मूल अभी तक चुकाना बाकी है। यही नहीं दबंग साहूकार ने मज़बूर किसार की दो बिस्वा ज़मीन पर भी कब्ज़ा कर लिया है। इस सच्चाई के बाद 1936 और 2009 में कोई फर्क नहीं आया है। 1936 में किसान की स्थिति को बयां करता प्रेमचन्द का उपन्यास गोदान प्रकाशित हुआ था। ये तो थी खबर। अब देखिए खबर का प्रभाव। कोरपोरे
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