साहित्य से अनजान लोगों की जुबान पर भी प्रेमचन्द और उनके उपन्यास ‘गोदान’ का नाम आसानी से मिल जाता है। प्रेमचन्द ने गोदान को 1932 में लिखना शुरू किया था और 1936 में प्रकाशित करवाया। उनके बेटे अमृतलाल के अनुसार इस उपन्यास को लिखने की प्रक्रिया काफी धीमी रही। दरअसल प्रेमचन्द उन दिनों काफी संघर्ष कर रहे थे, उनकी पत्रिका ‘हंस’ और ‘जागरण’ की स्थिति बेहद खराब थी। इन्हीं कारणों से गोदान का प्रकाशन काफी देर से हुआ। लेकिन मुझे लगता है कि प्रेमचन्द ‘गोदान’ के भविष्य से परिचित थे। वे उपन्यास की कथावस्तु और चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय करना चाहते थे, इसलिए चार वर्षों तक वे कथावस्तु, विषयवस्तु और चरित्रों को निखारते रहे होंगे। अपने लेखन से पूर्णत: संतुष्ट होने पर ही उन्होंने इसका प्रकाशन कराया। चार वर्षों की उनकी साधना ने हिन्दी साहित्य जगत को एक अमर रचना प्रदान की।गोदान ने प्रेमचन्द को उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां आजतक कोई दूसरा ना पहुंच सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य को अय्याशी और तिलस्म की जंजीरों से मुक्त कर, एक नया रूप दिया था। यूं तो उनकी दूसरी रचनाएं प्रेमा, पे्रमाश्रम, सेवासदन, गबन, कर्मभूमि
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